हर स्त्री को जाननी चाहिए ये कथा – शुक्रवारी व्रत के अद्भुत चमत्कार! 16 शुक्रवार की कथा 🔥

"नमस्कार दोस्तों! आज हम लेकर आए हैं संतोषी माता की अद्भुत और चमत्कारी कथा। एक ऐसी कहानी, जो भक्ति, श्रद्धा और सच्चे विश्वास की ताकत को दिखाती है।"

तो चालिए इस कथा को शुरू करते हैं । 


एक गांव में एक बूढ़ी औरत रहती थी, जिसके सात बेटे थे। उनमें से छह बेटे कमाने वाले थे, जबकि एक बेटा निकम्मा था। बूढ़ी मां छहों बेटों का जूठा बचा हुआ खाना सातवें बेटे को देती थी। एक दिन वह बेटा अपनी पत्नी से बोला, "देखो, मेरी मां मुझसे कितना प्यार करती है।" पत्नी ने हंसकर कहा, "प्यार? वह तो सबका बचा हुआ खाना तुम्हें खिलाती है।" यह सुनकर बेटा बोला, "जब तक अपनी आंखों से नहीं देखूंगा, यकीन नहीं करूंगा।" पत्नी ने कहा, "ठीक है, एक दिन देख लेना।"


कुछ दिन बाद त्योहार आया। घर में सात प्रकार के पकवान और चूरमा के लड्डू बने। बेटा अपनी मां की सच्चाई जानने के लिए सिरदर्द का बहाना बनाकर एक पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई में जाकर सो गया और कपड़े के अंदर से सब कुछ देखने लगा। उसने देखा कि छहों भाई आए, और मां ने उनके लिए सुंदर आसन बिछाए, सात प्रकार के पकवान परोसे और बड़े प्रेम से आग्रह कर-करके उन्हें भोजन कराया। जब छहों भाई भोजन कर उठ गए, तो मां ने उनकी थालियों से बचे हुए लड्डुओं के टुकड़ों को इकट्ठा किया और एक लड्डू बनाया। फिर मां ने जूठी थालियां साफ कीं और उसे पुकारा, "उठ बेटा! तेरे भाइयों ने खा लिया है, अब तू भी खाना खा ले।"

यह सब देखकर वह बोला, "मां, मुझे खाना नहीं खाना। मैं परदेस जा रहा हूं।" मां ने कहा, "कल जाना हो तो आज ही निकल जाओ।" उसने कहा, "हां, मैं आज ही जा रहा हूं।" इतना कहकर वह घर छोड़कर निकल पड़ा।

चलते समय उसे अपनी पत्नी की याद आई। वह गौशाला में कंडे थाप रही थी। वहां जाकर उसने कहा, "मेरे पास कुछ भी नहीं है। यह अंगूठी है, इसे रख लो और अपनी कोई निशानी मुझे दे दो।" पत्नी ने कहा, "मेरे पास क्या है? बस यह गोबर भरा हाथ है।" यह कहकर उसने गोबर से भरा हाथ उसकी पीठ पर मार दिया। वह वहां से चल पड़ा और चलते-चलते दूर देश पहुंच गया।

वहां एक साहूकार की दुकान थी। उसने साहूकार से कहा, "सेठ जी, मुझे काम पर रख लीजिए।" सेठ को नौकर की जरूरत थी। उसने कहा, "काम देखकर तनख्वाह मिलेगी।" वह बोला, "जो भी आप ठीक समझें।" उसे नौकरी मिल गई। उसने पूरे मन से काम करना शुरू किया। कुछ ही समय में वह दुकान का सारा काम संभालने लगा—लेन-देन, हिसाब-किताब और ग्राहकों को सामान बेचना। साहूकार के बाकी नौकर उससे जलने लगे, लेकिन उसने ईमानदारी और मेहनत से सभी को पीछे छोड़ दिया। तीन महीने में ही सेठ ने उसकी काबिलियत देखकर उसे मुनाफे में साझीदार बना लिया। धीरे-धीरे, बारह साल के परिश्रम से वह नगर का बड़ा सेठ बन गया। सेठ ने सारा कारोबार उसे सौंप दिया और खुद बाहर चला गया।

उधर उसकी पत्नी पर सास-ससुर ने बहुत अत्याचार किए। घर के सारे काम करवाने के बाद उसे लकड़ी लाने जंगल भेजते। घर पर उसे भूसी की रोटी और फूटे नारियल में पानी दिया जाता। इस तरह उसके दिन कट रहे थे।
एक दिन जब वह लकड़ी लेने जंगल जा रही थी, तो रास्ते में उसने बहुत सी औरतों को व्रत करते देखा। वह रुककर पूछने लगी, "बहनो, यह तुम किस देवता का व्रत कर रही हो और इससे क्या फल मिलता है? इस व्रत की विधि क्या है? कृपया मुझे भी बताओ।" उनमें से एक स्त्री ने कहा, "यह संतोषी माता का व्रत है। इसे करने से निर्धनता और दरिद्रता दूर होती है और घर में लक्ष्मी का वास होता है।"

मन की चिंताएं दूर होती हैं। मन को शांति और प्रसन्नता मिलती है। निःसंतान को संतान की प्राप्ति होती है। जो पति दूर गया हो, वह शीघ्र लौट आता है। कुंवारी कन्या को मनचाहा वर मिलता है। अदालत में चल रहे मुकदमे खत्म हो जाते हैं। घर में कलह-क्लेश समाप्त होता है, सुख-शांति का वातावरण बनता है, और धन-संपत्ति की वृद्धि होती है। इसके अलावा, मन में जो भी इच्छाएं होती हैं, वे संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।

वह औरत पूछने लगी, "यह व्रत कैसे किया जाता है? मुझे इसकी विधि भी बताइए।" स्त्री ने कहा, "इस व्रत को पूरी श्रद्धा और प्रेम से करना चाहिए। जितना बन सके, उतना प्रसाद ले सकते हैं। सवा पांच पैसे या सवा पांच आने से लेकर अपनी शक्ति और भक्ति के अनुसार गुड़ और चना लें। हर शुक्रवार को व्रत रखें, कथा सुनें या कहें। बीच में व्रत न टूटे। अगर सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जलाकर, जल के पात्र को सामने रखकर कथा कहें। नियम पालन तब तक करें जब तक मन की इच्छा पूरी न हो। इच्छापूर्ति के बाद व्रत का उद्यापन करें।

उद्यापन के लिए अढ़ाई सेर आटे का खाजा, खीर, और चने का साग बनाएं। आठ बच्चों को भोजन कराएं। जितने बच्चे रिश्तेदारों या पड़ोसियों में मिलें, उन्हें बुलाएं। भोजन के बाद उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें। उस दिन घर में कोई खटाई न खाए।" यह सुनकर वह औरत वहां से चली गई। रास्ते में उसने लकड़ियों का बोझ बेचकर गुड़ और चना खरीदा और व्रत की तैयारी करने लगी।

रास्ते में संतोषी माता के मंदिर पहुंचकर वह उनके चरणों में गिर पड़ी और रोते हुए बोली, "हे माता! मैं दीन-हीन हूं। व्रत की विधि भी नहीं जानती। लेकिन मैं बहुत दुखी हूं। कृपा कर मेरा दुख दूर कर दीजिए।" माता को दया आ गई। एक शुक्रवार बीता ही था कि अगले शुक्रवार को उसके पति का पत्र आया। तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ गया। यह देखकर जेठानी और घर के लोग ताने देने लगे।

उसने सहजता से कहा, "भैया, पैसा आए तो हम सबके लिए अच्छा है।" फिर वह संतोषी माता के मंदिर गई और रोते हुए बोली, "मां, मुझे पैसे से कोई मतलब नहीं। मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं अपने पति के दर्शन और सेवा चाहती हूं।" संतोषी माता ने प्रसन्न होकर कहा, "जा बेटी, तेरा पति जल्द ही आएगा।" वह खुशी-खुशी घर आकर काम में लग गई।

संतोषी माता ने सोचा, "इस भोली बेटी से मैंने कह तो दिया कि उसका पति आएगा, लेकिन उसे लाऊं कैसे? वह तो इसे याद भी नहीं करता। मुझे ही कुछ करना होगा।" माता ने उसके पति को स्वप्न में आकर कहा, "तेरी पत्नी बहुत कष्ट झेल रही है।" वह बोला, "माता, यह तो मुझे भी पता है, लेकिन मैं क्या करूं? यहां से जाने का कोई रास्ता नहीं है। आप ही कोई उपाय बताइए।" माता ने कहा, "सुबह स्नान कर मेरा नाम लेकर घी का दीपक जलाकर दुकान पर बैठना। शाम तक सारा लेन-देन पूरा हो जाएगा और धन का ढेर लग जाएगा।"

अगले दिन उसने वैसा ही किया। शाम तक उसकी दुकान में खूब बिक्री हुई और धन का ढेर लग गया। वह संतोषी माता को धन्यवाद देकर अपने घर जाने की तैयारी करने लगा। उसने गहने-कपड़े खरीदे और घर लौटने के लिए रवाना हुआ।

उधर उसकी पत्नी जंगल से लकड़ी लेकर लौट रही थी। थकान के कारण वह संतोषी माता के मंदिर पर रुक गई और बोली, "हे माता! यह धूल कैसी उड़ रही है?" माता ने कहा, "पुत्री, तेरा पति आ रहा है।" माता ने उसे निर्देश दिया, "लकड़ियों के तीन गट्ठर बना। एक नदी किनारे, एक मेरे मंदिर पर और एक अपने सिर पर रख। तेरे पति को यह लकड़ियां देखकर रुकने का मन होगा।"

उसने वैसा ही किया। जब उसका पति वहां पहुंचा, तो उसने सूखी लकड़ियां देखकर रुकने का निश्चय किया। उसने वहीं खाना बनाया, खाया, और फिर गांव की ओर चल पड़ा।

उसका पति गांव में आकर आराम करने लगा। उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लेकर घर आई। उसने आंगन में लकड़ी का गट्ठा डालकर जोर से तीन आवाजें दीं, "लो सासूजी, लकड़ी का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो। आज कौन मेहमान आया है?" यह सुनकर सास ने बहू को शांत करने के लिए कहा, "बहू, तू ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है। चल, मीठा भात खा और गहने-कपड़े पहन।"

पत्नी की आवाज सुनकर उसका पति बाहर आया। उसने पत्नी के हाथ में पहनी हुई अंगूठी देखी और हैरान होकर मां से पूछा, "मां, यह कौन है?" मां ने कहा, "बेटा, यह तेरी पत्नी है। जब से तू गया है, तब से यह जानवर की तरह भटक रही है। इसे कोई काम करना नहीं आता, लेकिन खाने के लिए चार बार घर आ जाती है। अब इसे भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी चाहिए।" यह सुनकर पति बोला, "मां, मैंने इसे भी देख लिया और आपको भी। अब मुझे दूसरे घर की चाबी दे दीजिए, मैं वहां रहूंगा।" मां ने कहा, "ठीक है बेटा, जैसा तू चाहे।" और चाबी का गुच्छा उसके सामने रख दिया।


उसने दूसरे घर को खोलकर वहां सारा सामान जमा लिया। देखते-देखते वह घर राजा के महल जैसा बन गया। अब बहू को सुख मिलने लगा। अगले शुक्रवार बहू ने पति से कहा, "मुझे संतोषी माता का उद्यापन करना है।" पति ने खुशी से कहा, "ठीक है, कर लो।"

बहू ने उद्यापन की तैयारी शुरू की और जेठ के लड़कों को भोजन के लिए बुलाया। उन्होंने खाने के लिए हां कर दी। लेकिन जेठानी ने अपने बच्चों को सिखा दिया कि भोजन के समय खटाई मांगना, ताकि उसका उद्यापन पूरा न हो सके। लड़के खाने आए, खीर खाई, लेकिन अचानक खटाई मांगने लगे। उन्होंने कहा, "हमें खीर-पूरी नहीं भाती, हमें खटाई चाहिए।" बहू ने भोलेपन में उन्हें पैसे दे दिए। लड़के बाजार से इमली खरीदकर खा आए।

यह देखकर संतोषी माता क्रोधित हो गईं और राजा के सैनिकों ने उसके पति को पकड़कर ले जाने का आदेश दे दिया। बहू यह सहन नहीं कर पाई और माता के मंदिर जाकर रोने लगी। उसने कहा, "माता, आपने ऐसा क्यों किया? मुझे हंसाकर अब क्यों रुला रही हो?" माता ने कहा, "पुत्री, तूने मेरा व्रत भंग किया है।" बहू ने कहा, "माता, मैंने कुछ गलती नहीं की। लड़कों की वजह से ऐसा हुआ। मुझे क्षमा करो।" माता ने कहा, "अब कोई भूल मत करना। तेरा पति तुझे रास्ते में ही मिलता है।"

जब वह मंदिर से बाहर निकली, तो रास्ते में उसे पति मिलता हुआ दिखाई दिया। उसने पूछा, "तुम कहां थे?" पति ने जवाब दिया, "राजा ने कर मांगा था, उसे भरने गया था।" यह सुनकर वह प्रसन्न हुई और बोली, "भला हुआ। अब घर चलो।"

अगले शुक्रवार उसने फिर से उद्यापन करने का निश्चय किया। उसने जेठ के लड़कों को फिर भोजन के लिए बुलाया। लेकिन इस बार, लड़के भोजन करने से पहले ही खटाई मांगने लगे। बहू ने साफ कह दिया, "खटाई नहीं मिलेगी। खाना हो तो खाओ, वरना छोड़ दो।" लड़के उठकर चले गए। तब उसने ब्राह्मणों के लड़कों को बुलाकर भोजन करवाया और उन्हें दक्षिणा में एक-एक फल दिया।

संतोषी माता प्रसन्न हो गईं। माता की कृपा से नौ महीने बाद बहू को चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। वह पुत्र को लेकर रोज माता के मंदिर जाने लगी। माता ने सोचा, "यह रोज आती है। क्यों न मैं खुद इसके घर जाऊं और इसे आशीर्वाद दूं।"

माता ने एक भयानक रूप बनाया। उनका चेहरा गुड़ और चने से सना हुआ था, होंठ मुंड जैसा लग रहा था, और मक्खियां भिनभिना रही थीं। जैसे ही माता घर में दाखिल हुईं, सास चिल्लाने लगी, "देखो, कोई चुड़ैल घर में घुस आई है। इसे भगाओ।"

बहू यह सब रोशनदान से देख रही थी। उसने तुरंत अपने बच्चे को गोद से उतार दिया और कहा, "मां, आप मेरे घर आई हैं।" सास ने गुस्से में कहा, "कैसी पागल हो गई है! बच्चे को क्यों पटक दिया?" इतने में माता के प्रताप से घर में हर तरफ बच्चे ही बच्चे दिखने लगे। बहू ने कहा, "सासू मां, यह संतोषी माता हैं, जिनका मैं व्रत करती हूं।"

यह सुनकर सबने माता के चरण पकड़ लिए और क्षमा मांगने लगे। माता प्रसन्न हुईं और सबको आशीर्वाद दिया। सास ने कहा, "हे संतोषी माता, आपने मेरी बहू को सुख दिया। कृपया हर उस व्यक्ति की मनोकामना पूरी करें, जो आपकी यह कथा सुने या पढ़े।"

Conclusion:

"तो दोस्तों, यही है संतोषी माता की अद्भुत और प्रेरणादायक कथा। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चे मन से की गई भक्ति और श्रद्धा कभी व्यर्थ नहीं जाती। माता संतोषी हर उस भक्त की मनोकामना पूरी करती हैं, जो उनके व्रत और नियम को सच्चे दिल से निभाता है।"

"अगर आपको यह कहानी पसंद आई हो, तो इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करें, लाइक करें और हमारे चैनल मंथन मेला को सब्सक्राइब करना न भूलें।"

"अगली बार एक और रोचक कथा लेकर आएंगे। तब तक संतोषी माता के चरणों में भक्ति बनाए रखें।"

"संतोषी माता का व्रत करने वाले सभी भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण हों। जय माता दी!"

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